भारतीय संगीत के सारथी (Charioteer of Indian Music)

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भारतीय संगीत के सारथी

(Charioteer of Indian Music)


भारतीय संगीत के सारथी, भारतीय संगीत में भारत के विभिन्न संगीत के सारथियों ने अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है आज हम आपको भारत के उन सारथियों के विषय में और भारतीय संगीत के बारे में जानकारी प्रदान करेंगे। क्या आप जानते हैं कि भारत में संगीत की शुरुआत किस आधार पर हुुई थी, अगर नहीं तो हम आपको बताते है कि भारतीय संगीत के प्रारम्भिक काल में इसे आध्यात्मिकता के एक स्रोत के रूप में देखा जाता था अर्थात संगीत को ईश्वर की आराधना करने और उनसे आध्यात्मिक तौर पर जुड़ने का एक साधन माना जाता था। भारत में संगीत की उत्पत्ति ही आध्यात्मिकता के आधार पर हुई थी। भारतीय संस्कृति की विभिन्न संस्कृतियों का समागम भी संगीत में कालान्तर में हुआ और यह आध्यात्मिकता के साथ-साथ लौकिकता से भी जुड़ता चला गया। भारतीय संगीत में लौकिकता के जुड़ाव के कारण ही भारत में अनेक संगीत ग्रन्थों की रचना हुई। जिसमें से कई आज भारतीय संगीत की अमूल्य धरोहर के रूप में विद्यमान है। भारत के संगीत की इस अमूल्य धरोहर में भारतीय संगीत के उन सारथियों का महत्वपूर्ण योगदान है जिन्होंने अपना जीवन इस अमूल्य धरोहर के निर्माण में लगा दिया।


वेदों के काल में ही भारतीय संगीत की उत्पत्ति का बीज विद्यमान था। इसका आधार प्राचीनतम वेद सामवेद में ही समाहित था। सामवेद के मंत्रों को ही गायन व संगीत का आधार माना जाता है। सामवेद में ही मन्त्रों के गायन से सम्बंधित नियमों का उल्लेख मिलता है इस आधार पर प्राचीनकाल के ऋषियों और मुनियों ने संगीत को पंचम वेद व गन्धर्व वेद की संज्ञा प्रदान की।


भारतीय संगीत के सारथी के रूप में कवि लोचन ने संगीत ग्रन्थ राजतरंगिणी की रचना की और ११वीं सदी में शारंगदेव ने संगीत ग्रन्थ संगीत रत्नाकर की रचना की। भारतीय संगीत ग्रन्थों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के आधार पर यह दोनों रचनाएं भारतीय संगीत में अपना विशेष योगदान देती है और प्रसिद्ध संगीत ग्रन्थों की श्रेणी में शामिल हैं।


भारत की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के आधार पर आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि भारत में अनेक संगीत ग्रन्थों की रचना का एकमात्र स्रोत सामवेद था। सामवेद के आधार पर ही भारत में कई संगीत ग्रन्थों की रचना हुई थी।


प्राचीनकाल में भारतीय संगीत के दो स्वरूप प्रचलन में थे। भारतीय संगीत का एक स्वरूप जो मोक्ष की प्राप्ति कराने का एक साधन माना जाता था और सत्य के मार्ग को दर्शाने वाला माना जाता था। जिसे हम मार्गी संगीत के रूप में जानते हैं। भारतीय संगीत का दूसरा स्वरूप देशी संगीत था। देशी संगीत के द्वारा ही भारतीय संगीत के शास्त्रीय संगीत और लोक संगीत के अस्तित्व का विकास हुआ। जो आगे चलकर देशी संगीत के दो स्वरूप बन गए। मार्गी संगीत का अस्तित्व कालान्तर में धीरे धीरे लुप्त होने लगा और केवल देशी संगीत का अस्तित्व ही भारतीय संगीत में उपस्थित हैं और देशी संगीत के दो स्वरूपों भारतीय शास्त्रीय संगीत और लोक संगीत में दिखाई देता है।


भारतीय शास्त्रीय संगीत को भी हम दो स्वरूप में जानते है। भारतीय शास्त्रीय संगीत का एक स्वरूप जो उत्तरी भारत में पाया जाता है और दूसरा स्वरूप जो दक्षिणी भारत में पाया जाता है। उत्तरी भारत में पाये जाने वाले संगीत को हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत या उत्तरी भारतीय संगीत कहा जाता है। जिसमें भारत के उत्तरी भाग की संस्कृति की झलक दिखाई देती है और दूसरा स्वरूप जो दक्षिणी भारत में पाया जाता है। जिसमें दक्षिणी भारत की संस्कृति की झलक दिखाई देती है और जिसे दक्षिण भारतीय शास्त्रीय संगीत या कर्नाटक भारतीय शास्त्रीय संगीत कहा जाता है।


लोकसंगीत जो प्राचीनकाल से ही भारतीय संस्कृति में विशेष महत्व रखता है और जिसे भारतीय संगीत का एक महत्वपूर्ण अंग माना जाता है। आज भी भारत के लोकसंगीत को, आप भारत के विभिन्न हिस्सों में होने वाले उत्सवों व संस्कृतिक कार्यक्रमों में इनका दर्शन करते हैं। भारतीय संगीत के सारथियों ने संगीत की इस अमूल्य धरोहर को भारतीय संस्कृति में संजोकर रखा है।

भारतीय संगीत के इन सारथियों के विषय में और अधिक जानकारी के लिए देखें हमारी यह विडियो

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