जैसे ही भारतवर्ष में मानसून की पहली फुहारें गिरती हैं, असम की नीलांचल पहाड़ियों में एक आध्यात्मिक ज्वार उमड़ पड़ता है। गुवाहाटी स्थित प्राचीन कामाख्या मंदिर में आयोजित अम्बुबाची मेला, एक ऐसा पर्व है जो केवल हिन्दू धर्म का उत्सव नहीं, बल्कि एक बहुसांस्कृतिक और बहुधार्मिक समागम बन चुका है—एक जीवंत उदाहरण सांस्कृतिक समन्वय (Cultural Syncretism) का, जहां परंपराएं मिलती हैं, सीमाएं घुलती हैं और एक साझा आस्था जन्म लेती है।
कामाख्या और अम्बुबाची: एक विशिष्ट शक्तिपीठ
अम्बुबाची मेला मुख्य रूप से मां कामाख्या के वार्षिक रजस्वला (menstruation) को समर्पित है। इस दौरान मंदिर के द्वार चार दिन के लिए बंद कर दिए जाते हैं, जो देवी के मासिक धर्म का प्रतीक है, और फिर विधिवत पुनः खोले जाते हैं। यह पर्व शक्तिपूजा और तंत्र साधना का प्रतिनिधित्व करता है, लेकिन इसकी जड़ें केवल हिंदू धर्म में नहीं हैं—यह एक बहुस्तरीय, बहुपरंपरागत उत्सव बन गया है।
सांस्कृतिक समन्वय की छवियाँ
1. जनजातीय परंपराओं और तंत्र का मेल
कामाख्या तंत्र साधना का केंद्र है, लेकिन असम के बोड़ो, राभा और टिवा जैसी जनजातियों की लोक-मान्यताएं भी इसमें गहराई से रची-बसी हैं। योनि पीठ को जननी भूमि और प्रकृति की देवी के रूप में पूजना जनजातीय विश्वासों से जुड़ा है। उनकी लोक देवी पूजा और अम्बुबाची की तांत्रिक साधनाएं आपस में घुलमिल जाती हैं।
2. मुस्लिम फकीरों और सूफी संतों की भागीदारी
हैरानी की बात है कि मुस्लिम फकीर और सूफी संत भी इस मेले में शामिल होते हैं। वे हिंदू रीति-रिवाज नहीं निभाते, लेकिन उनकी मौन साधना, जप और आध्यात्मिक ऊर्जा उन्हें इस समन्वय का भाग बना देती है। सूफी परंपरा में नारीत्व, भक्ति और एकता की अवधारणा यहां के माहौल से मेल खाती है।
3. बाउल और तांत्रिक संगीत का संगम
बंगाल के बाउल संत, जो वैष्णव, सूफी और तांत्रिक विचारों का समन्वय करते हैं, अम्बुबाची में नियमित रूप से आते हैं। उनका गीत—मनुष के भीतर मनुष की खोज—कामाख्या की तांत्रिक आत्म-अन्वेषण की भावना से जुड़ता है। इस तरह, यह मेला आध्यात्मिक बहुधारा का संगम स्थल बन जाता है।
नारी और शक्ति: एक खुला संवाद
अम्बुबाची मेला उस विषय को सार्वजनिक रूप से स्वीकार करता है, जिसे आमतौर पर वर्जित माना जाता है—मासिक धर्म। यहां महिलाएं, आदिवासी पुजारिनें, साध्वियाँ, और सामाजिक कार्यकर्ता एक साथ बैठकर स्त्री शक्ति, प्रजनन, स्वास्थ्य और अधिकारों पर चर्चा करती हैं। यह मेला एक धार्मिक आयोजन के साथ-साथ सामाजिक विमर्श का मंच भी बन चुका है।
सांस्कृतिक रंग: भाषा, कला और स्वाद
मेले में विविधता केवल आस्था में नहीं, बल्कि संस्कृति की अभिव्यक्ति में भी दिखती है। यहाँ असमिया, बोडो, हिंदी, बांग्ला और उर्दू भाषाओं में गीत गूंजते हैं। हस्तशिल्प की दुकानों में तांत्रिक प्रतीकों वाली वस्तुएं और जनजातीय आभूषण साथ बिकते हैं। भोजन में अहॉम, बांग्ला और जनजातीय व्यंजन मिलते हैं—हर आगंतुक का स्वागत खुले हृदय से होता है, बिना धर्म और जाति के भेदभाव के।
विविधता में एकता: एक जीवंत उदाहरण
हालाँकि अम्बुबाची मेला हिंदू परंपरा से जुड़ा हुआ है, लेकिन इसकी खुली सोच और विविधता को अपनाने की क्षमता ने इसे एक सांस्कृतिक संगम बना दिया है। यहाँ धर्म सीमाओं में नहीं बँधता, बल्कि बहता है—एक नदी की तरह जो कई स्रोतों से मिलकर बनी है।
निष्कर्ष: परंपरा से संवाद की ओर
अम्बुबाची मेला केवल देवी के गर्भगृह के बंद होने और खुलने की बात नहीं है—यह मन और समाज के द्वार खोलने की बात है। यहां का सांस्कृतिक समन्वय एक संदेश है कि जब आध्यात्मिकता दीवारों से मुक्त होती है, तब वह पुल बन जाती है।
नीलांचल की लाल मिट्टी और बारिश से भीगे आकाश के नीचे, अम्बुबाची एक अनंत सत्य कहती है—"परंपराएं मिलें तो नया संसार बनता है।"