संस्कृति मानव जीवन की वह समग्र विधि है जो समाज के सदस्यों के सोचने-समझने, व्यवहार करने, बोलने-लिखने, परंपराओं, रीति-रिवाजों, विश्वासों और जीवन जीने की शैली को परिभाषित करती है। यह केवल बाह्य अभिव्यक्तियों जैसे वस्त्र, भोजन, स्थापत्य कला आदि में ही नहीं, बल्कि आंतरिक मानसिकता, मूल्य प्रणाली, नैतिकता, धर्म और कला में भी प्रकट होती है। इस लेख में हम विषय वस्तु की संस्कृति की व्यापक परिभाषा, उसके तत्व, प्रकार, महत्व, विकास तथा उसकी विभिन्न शाखाओं का यथासंभव विशद वर्णन करेंगे।
संस्कृति की परिभाषा और मूल अवधारणा
संस्कृति शब्द संस्कृत धातु ‘कृ’ (करना) से बना है, जिसका अर्थ है ‘परिष्कृत करना’ या ‘सांस्कृतिक रूप देना’। अंग्रेज़ी में इसे "Culture" कहा जाता है, जो लैटिन शब्द 'कल्टस' से आया है, जिसका मतलब होता है जोतना या विकसित करना। सामान्यतः संस्कृति उस सामाजिक और मानसिक वातावरण को कहते हैं जिसमें एक परिवार, जाति, समुदाय या समाज की जीवन पद्धति, विचारधारा और व्यवहार का समष्टिगत रूप प्रकट होता है।
संस्कृति में किसी भी समाज के गूढ़ मूल्यों, विश्वासों, कला, साहित्य, धर्म, भाषा, स्थापत्य, संगीत, नृत्य, रीति-रिवाजों और मनुष्य के सभी भौतिक तथा अभौतिक आविष्कार और व्यवहार सम्मिलित होते हैं। यह वे अमूर्त विचार और भाव होते हैं जो व्यक्ति और समाज के सदस्यों के व्यवहार और सोच को मार्गदर्शित करते हैं। मानव की सभ्यता की सभी उपलब्धियाँ संस्कृति की देन हैं।
विषय वस्तु की संस्कृति की अवधारणा
विषय वस्तु वह सार या मर्म होता है जिस पर किसी पुस्तक, चर्चा, लेख या कार्य का आधार होता है, जो उसकी शैली और रूपापेक्षा भिन्न होता है। जब हम संस्कृति की बात करते हैं, तो इसका विषय वस्तु जीवन के सारे पहलुओं को समेटता है, जैसे कि आदर्श, मूल्य, विश्वास, कला, नैतिकता, ज्ञान, रीति-रिवाज आदि।
इस प्रकार विषय वस्तु की संस्कृति से आशय उस संस्कृति के मूल और गहरे विषय, उसके विचार-धाराओं, जीवन शैली, नैतिकता, सामाजिक गायन, सामाजिक नियम आदि से है जो समाज के जीवन को संचालित और परिभाषित करते हैं।
संस्कृति के तत्व और प्रकार
संस्कृति दो प्रमुख प्रकारों में विभाजित की जाती है:
भौतिक संस्कृति: यह वे सभी भौतिक वस्तुएं और संकल्पनाएं हैं, जिन्हें समाज ने बनाया और विकसित किया है। इसमें कला, स्थापत्य, प्रौद्योगिकी, वस्त्र, भोजन, गृहोपकरण आदि शामिल हैं। ये वस्तुएं समाज की सभ्यता और विकास का द्योतक होती हैं।
अभौतिक संस्कृति: यह विचारों, विश्वासों, मूल्यों, नैतिकता, धर्म, भावना, परंपराओं और भाषा से संबंधित होती है। ये वे मनोवैज्ञानिक व आध्यात्मिक पक्ष हैं जो समाज के सदस्यों के व्यवहार और आचरण को प्रभावित करते हैं।
व्यापक दृष्टिकोण में विषय वस्तु की संस्कृति में ये दोनों ही पक्ष अंतर्निहित होते हैं। एक तरफ जब हम संस्कृति की अभिव्यक्ति बाह्य रूपों में देख सकते हैं, तो दूसरी ओर उसके अमूर्त सिद्धांत, आदर्श, नैतिकता और जीवन की समझ भी संस्कृति के महत्वपूर्ण अंग हैं।
संस्कृति का विकास और स्वरूप
संस्कृति एक स्थिर वस्तु नहीं, बल्कि समय के साथ निरंतर विकसित होती रहती है। इसके विकास में ऐतिहासिक घटना, सामाजिक बदलाव, तकनीकी प्रगति, वैचारिक परिवर्तन और विभिन्न समुदायों के बीच संपर्क मुख्य भूमिका निभाते हैं। यह विकास संवाद, अनुवाद, प्रतिस्पर्धा, एकीकरण और नवाचार जैसे माध्यमों से होता है।
संस्कृति एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तांतरित होती है, और उसमें नए तत्व जुड़ते रहते हैं। यह जीवित और गतिशील है, जो सामाजिक वातावरण और व्यक्ति के अनुभवों से प्रभावित होती है।
विषय वस्तु की संस्कृति के महत्व
समाजिक पहचान: संस्कृति समाज और समुदाय की विशिष्ट पहचान प्रदान करती है। किसी भी देश या समूह की सांस्कृतिक परंपराएं उसकी सामाजिक छवि का निर्माण करती हैं।
मानव मूल्यनिर्धारण: संस्कृति नैतिकता, आदर्श और व्यवहार के मानक स्थापित करती है, जो जीवन के निर्णयों और व्यवहारों के लिए आधार बनते हैं।
सामाजिक समरसता: साझा सांस्कृतिक मूल्यों और विश्वासों के कारण समाज के सदस्य एक-दूसरे के साथ मेल-जोल और सामंजस्य स्थापित करते हैं।
ज्ञान और परंपरा का संरक्षण: संस्कृति समाज के ज्ञान, कला, विज्ञान और परंपराओं को संरक्षित और संवर्धित करती है।
आत्म-सम्मान और गर्व: अपनी सांस्कृतिक विरासत को जानना, समझना और उसका संरक्षण करना समाज के सदस्यों को गर्व और आत्म-सम्मान की भावना देता है।
संस्कृति और सभ्यता में अंतर
संस्कृति और सभ्यता अक्सर एक जैसे प्रयोग होते हैं, पर दोनों में सूक्ष्म अंतर होता है। संस्कृति वह मानसिक और अमूर्त पक्ष है जो भावना, विश्वास, आचार-व्यवहार, कला और सोच को दर्शाता है, जबकि सभ्यता उस भौतिक पक्ष को प्रवृत्त करती है जो समाज की सामाजिक, आर्थिक और तकनीकी उपलब्धियों से जुड़ी होती है।
संस्कृति साध्य होती है (जीवन शैली व मूल्य), और सभ्यता साधन (वस्त्र, भोजन, आवास, तकनीक आदि)। सभ्यता का निर्माण संस्कृति के आधार पर होता है और दोनों एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं।
विषय वस्तु की संस्कृति के क्षेत्र
विषय वस्तु की संस्कृति के कई क्षेत्र होते हैं जिनमें प्रमुख हैं:
धार्मिक और आध्यात्मिक संस्कृति: धार्मिक विश्वास, पूजा पद्धतियां, आध्यात्मिक चिंतन, धार्मिक साहित्य
साहित्यिक संस्कृति: भाषा, साहित्य, लोककथाएं, गद्य, पद्य और नाटक
कलात्मक संस्कृति: संगीत, नृत्य, चित्रकला, मूर्तिकला, वास्तुकला
सामाजिक संस्कृति: सामाजिक रीतिरिवाज, पारिवारिक संरचना, विवाह, पर्व त्योहार
भोजन संस्कृति: भोजन की प्रकार, पकाने की विधि, सामाजिक संदर्भ में भोजन का महत्व
वेषभूषा और आभूषण: शरीर की सजावट, वस्त्र, आभूषण, फैशन
संस्कृति का अध्ययन और संरक्षण
संस्कृति का अध्ययन समाजशास्त्र, मानवशास्त्र, इतिहास, भाषाशास्त्र और कला आदि विभिन्न क्षेत्रों के शोध और विश्लेषण के माध्यम से किया जाता है।
संस्कृति का संरक्षण आधुनिक समय में अत्यंत आवश्यक हो गया है क्योंकि विश्वव्यापीकरण, आधुनिकता और तकनीकी प्रगति के कारण संस्कृतियों में बदलाव और विलुप्ति का खतरा है। सांस्कृतिक धरोहरों, परंपराओं, भाषाओं और लोककला का संधारण आज के सामाजिक दायित्वों में गिना जाता है।
वर्तमान समय में विषय वस्तु की संस्कृति की चुनौतियां
वैश्वीकरण और सांस्कृतिक समरूपता: वैश्विक रीति-रिवाजों और सांस्कृतिक आदतों के प्रसार के कारण स्थानीय संस्कृतियाँ प्रभावित हो रही हैं।
परंपराओं में बदलाव: नई पीढ़ियों में पारंपरिक मूल्यों का कायापलट हो रहा है, जिससे सांस्कृतिक विरासत कमजोर पड़ रही है।
तकनीकी प्रभाव: डिजिटल मीडिया और इंटरनेट से सांस्कृतिक सूचना का आदान-प्रदान बेहतर तो हुआ है लेकिन साथ ही नकली और कम गुणवत्तायुक्त सांस्कृतिक तत्व भी तेजी से फैल रहे हैं।
सांस्कृतिक हिंसा और द्वेष: विभिन्न संस्कृतियों के बीच विवाद, असहिष्णुता और सांस्कृतिक भेदभाव समाज में तनाव उत्पन्न करता है।
निष्कर्ष
विषय वस्तु की संस्कृति मानव समाज की वह अमूल्य संपदा है जो हमें हमारी पहचान, संबंध और जीवन का मार्गदर्शन प्रदान करती है। यह व्यक्तियों और समाजों के लिए स्थिरता, समझ और सम्मान का आधार है। इसे समझना, सीखना और संरक्षण करना प्रत्येक सामाजिक और राष्ट्रीय उत्तरदायित्व है।
संस्कृति केवल भौतिक वस्तुओं का समूह नहीं, बल्कि हमारी सोच, विश्वास, आदर्श और व्यवहार का समग्र रूप है जो मानवता की प्रगति और समृद्धि को सुनिश्चित करता है। हमें अपनी संस्कृति की गहराई को समझते हुए उसे आधुनिक युग की चुनौतियों के संदर्भ में संरक्षित व संवर्धित करना चाहिए ताकि इसकी महत्ता बनी रहे और आने वाली पीढ़ियों को भी इसका ज्ञान प्राप्त हो।